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बारहवाँ अध्याय




बारहवाँ अध्याय

यह तो पहले ही कह चुके हैं कि दसवें अध्याय में जिस योग का उल्लेख विभूति के साथ हुआ है वह विराटदर्शन या विश्वरूपदर्शन का ही दूसरा नाम है। इसे प्रमाणित भी किया जा चुका है। यदि यह बात न होती तो जहाँ अन्य सभी अध्या यों की समाप्ति वाले वाक्य में 'सांख्ययोग:', 'कर्मयोग:' आदि लिख के सांख्य, कर्म प्रभृति के साथ योग का उल्लेख बराबर ही किया गया है, तहाँ केवल इसी ग्यारहवें अध्याहय में सिर्फ 'विश्वदर्शनं' इतना ही क्यों लिखा जाता? सभी प्रामाणिक भाष्यों एवं टीकाओं में यही पाया जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब यह विश्वरूपदर्शन निर्विवाद रूप से स्वयमेव योग है तो पुनरपि योग शब्द के नाहक पुनरुक्ति क्यों करना? जहाँ विवाद की गुंजाइश हो वहीं उसका लिखा जाना ठीक था।

इस प्रकार विश्वरूपदर्शन की बात खत्म करके आगे बढ़ने की बात आती है। वहीं तेरहवें अध्यादय में पाई भी जाती है। वहाँ उन्हीं पदार्थों का दार्शनिक ढंग से विश्लेषण तथा विवेचन किया है जिन्हें ग्यारहवें अध्याय में दिखाया गया है। यह बात वहीं विशेष रूप से बताएँगे और दिखाएँगे कि मनन का सिलसिला क्यों नहीं टूटना चाहिए। बल्कि यह बात तो पहले भी कही चुके हैं कि निदिध्याासन, समाधि या प्रयोग के बाद भी मनन की जरूरत होती ही है। नहीं तो सारी बातें भूल ही जाएँ और किया-कराया सब कुछ चौपट हो जाए। इसीलिए उससे पूर्व का यह बारहवाँ अध्या य भी मनन के ही रूप में प्रसंग से आ गया है। यह प्रसंग भी ग्यारहवें के अंत के चार और खासकर आखिरी दो श्लोकों के ही चलते आया है। इस प्रासंगिक बात को बीच में पूरा कर लेना भी जरूरी था। तभी असली बात का सिलसिला ठीक-ठीक चल सकता था।

बात यों हुई कि कृष्ण ने अपना साकार विराट रूप दिखा के अर्जुन से साफ कह दिया कि इसके जानने और देखने का कोई दूसरा उपाय नहीं है, सिवाय इसके कि अनन्य-भक्ति की जाए। उनने यह भी कह दिया कि जो कुछ भी किया जाए वह भगवदर्पण बुद्धि से ही। जब तक यह न होगा यह दर्शन असंभव है। यह ठीक है कि सिर्फ दर्शन हो के ही खत्म हो न जाएगा। किंतु दर्शक को मुक्ति भी मिलेगी। फिर भी इस दर्शन के रास्ते मुक्ति तक पहुँचना दुर्लभ चीज है। इससे अर्जुन के दिल में फौरन ही यह खयाल होना जरूरी था कि ऐं, कृष्ण तो इसी साकार की उपासना और भक्ति को यज्ञादि से भी बड़ी चीज मानते तथा इस साकार दर्शन को दुर्लभ कहते हैं। मगर यहाँ तो बराबर ही देखा-सुना जाता है कि निराकार ब्रह्म में ही विवेकी लोग दिन-रात लगे रहते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है? यदि यही उत्तम मार्ग है तो लोग उसमें क्यों पड़ते हैं? यह भी नहीं कि मामूली लोग ही उधर जाते हैं। नहीं, नहीं। वह तो बड़े-बड़े अगड़धत्तों और विवेकियों का ही मार्ग है। बल्कि जनसाधारण के लिए तो वह दुर्लभ ही है। इसलिए यह तो मानना ही होगा कि वह मार्ग भी उत्तम ही है। खुद कृष्ण ने भी तो पहले उस पर बहुत ही जोर दिया है। फिर उत्तम क्यों न हो? मगर अभी-अभी इनने जो कुछ कह दिया उससे तो साकार की उपासना ही अच्छी साबित होती है! यह तो अजीब घपला है! यह पहेली तो निराली है!

इसीलिए उसने चटपट कृष्ण से पूछ ही तो दिया कि बात क्या है? रास्ते तो दोनों आपके ही बताए हैं। इसीलिए अब साफ-साफ कहिए न, कि इन दोनों में कौन अच्छा है? इन दोनों पर चलने वालों में जोई अच्छे और कुशल होंगे मैं उन्हीं को पसंद करूँगा। 'योगवित्तमा:' शब्द देने का भी मतलब है। योग तो उपाय ही ठहरा, जिसे मार्ग कहिए या रास्ता। इन दोनों मार्गों के जानकार और इन पर अमल करने वाले लोग योगवित् हुए, यह भी ठीक ही है। मगर दोनों में ज्यादा कुशल कौन हैं, अच्छे कौन हैं, योगवित्तम कौन हैं यही बता दीजिए तो काम चले, यही आशय अर्जुन का है। दरअसल ग्यारहवें अध्यातय के समूचे प्रसंग में अंत के वचनों को सुन के ही अर्जुन को एकाएक यह खयाल हो आया और उसने फौरन उसे जाहिर कर दिया। उसने बहुत ज्यादा इस बारे में सोचा-विचारा नहीं। नहीं तो शायद उसे ऐसा पूछने की जरूरत होती ही नहीं। उसे खुद-ब-खुद संतोष और समाधान हो जाता।

क्योंकि छठे अध्याेय के बाद भी कृष्ण ने निराकार आत्मा में लगने तथा उसके अनन्य चिंतन की बात कही ही है। छठे अध्याय में या उससे पहले तो यह बात खूब ही आई है। सांख्ययोग तो दरअसल यही है भी और उसी से गीता का श्रीगणेश हुआ है। ज्ञान का जो रूप पहले भी और खासकर चौथे तथा छठे अध्याउय में आया है वह कितना महत्त्वपूर्ण है! उसकी प्राप्ति के लिए यत्न करने पर भी कितना जोर दिया है! यही नहीं। यदि ग्यारहवें अध्यापय के अंतवाले इन श्लोकों को ही देखें तो उनमें क्या लिखा है? उनमें यह कहाँ कहा गया है कि ज्ञानमार्ग या निराकार ब्रह्म की समाधि से भी यह साकार चिंतन या सगुण की भक्ति श्रेष्ठ है? वहाँ तो इतना ही कहा है कि वेद, तप, दान और यज्ञ से भी यह दर्शन होने को नहीं। इसलिए अनन्य भक्ति करो। यह तो नहीं कहा कि ज्ञान और समाधि से भी यह होने को नहीं। यदि वेद, तप, दान और यज्ञ से इस उपासना को श्रेष्ठ बताया, तो बुरा क्या किया? यह तो ठीक ही है। ये चारों तो बेकार हैं यदि इनके करते भगवान में भक्ति न हो। यह भी नहीं कि यज्ञ शब्द से ज्ञान भी लिया जाए। ऐसा करना तो दूर की कौड़ी लाना हो जाएगा। हम तो यह भी कह चुके हैं कि ग्यारहवें अध्यााय का यज्ञ शब्द ज्ञान को छोड़ के और यज्ञों को ही, और आमतौर से प्रसिद्ध यज्ञों को ही बताता है। जिस ज्ञान से इस भक्ति को तरजीह देनी हो, जिससे इसे श्रेष्ठ कहना हो उसी का नाम सीधे न लिया जाकर यज्ञ के रूप में ही उसे ला के इसकी विशेषता बताई जाए, यह निराली समझ का काम है। जब आगे बारहवें में स्पष्ट ही वही बात अर्जुन कहता है, तो कृष्ण को उससे पहले कहने में क्या हिचक हो सकती थी, यदि उनका वही आशय होता?

इसीलिए अगत्या मानना ही होगा कि कृष्ण का ऐसा कोई आशय न था। नहीं तो साफ ही बोल देते। सो भी तीसरे अध्यानय में अर्जुन के यह कहने के बाद, कि गोलमोल बातें कह के, ऐसा लगता है कि आप मुझे घपले में डाल रहे हैं, कृष्ण के लिए यह जरूरी हो गया था कि स्पष्ट कहें। उनने बराबर ऐसा ही किया भी है। इसीलिए पुनरपि अर्जुन को यह इलजाम लगाने का मौका नहीं मिल सका है। मगर अगर ऐसा ही मानें, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, तब तो यहीं पर उस इलजाम का सुंदर मौका था और अर्जुन को वही कहना भी चाहता था। लेकिन यह तो अर्जुन भी नहीं कहता है कि साकार उपासना को कृष्ण ने श्रेष्ठ कहा है। वह तो इतना ही मानता है कि दोनों ही पर कृष्ण का जोर काफी है। मगर ग्यारहवें अध्याय में प्रसंग साकार का ही है। इसीलिए उसने खुद पूछा कि आया दोनों रास्ते बराबर ही हैं या इनमें कोई श्रेष्ठ भी है। दोनों पर बराबर ही जोर देना उसे मालूम हुआ था जरूर। फिर भी हरेक तो दोनों को कर नहीं सकता। इसलिए दोनों में एक को उसे चुनना ही होगा। इसी से वह पूछता भी है कि कौन-सा एक अच्छा है।

अच्छा, मान लें कि अर्जुन दोनों में किसी एक की विशेषता ठीक ही समझ न सका था। इसीलिए तो उसने पूछा। फिर भी कृष्ण ने उत्तर में साकारोपासना को उत्तम करार दे दिया। लेकिन यह भी अजीब बात है। ग्यारहवें अध्याय के अंत में साकार की बात संभव थी। उसी का तो वहाँ प्रसंग ही था। इसलिए स्वभावत: अर्जुन का झुकाव उसी ओर होना था। ताहम निश्चय न कर सकने के कारण ही उसने पूछ दिया। इतना तो मानना ही होगा। किंतु जरा यह भी तो सोचें कि आखिर वह पूछता ही क्या है। यही न, कि दोनों में योगवित्तम कौन हैं? और योग का अर्थ 'समत्वं योग उच्यते' तो हो नहीं सकता। क्योंकि उसमें छोटे-बड़े का क्या प्रश्न, उत्तम-मध्याम की क्या बात? वह तो एक ही तरह का होता ही है। और दोनों ही योगी हों यह तो गैरमुमकिन भी है। योग के मूल में तो आत्मदर्शन है न? वह साकारोपासक को होगा ही कैसे? तब तो यह उपासना ही बेकार होगी। इसलिए यहाँ योग का अर्थ उपाय, रास्ता या मार्ग ही मानना होगा। हम तो कही चुके हैं कि योग का उपाय अर्थ भी होता ही है। अर्जुन के पूछने का तो केवल इतना ही आशय है कि कल्याण का मार्ग जानते हैं तो दोनों ही। मगर उन जानने वालों में कुशल कौन है?

असल में मार्ग तो सबके लिए एक होता नहीं। वह तो योग्यता या अधिकार के हिसाब से ही जुदा-जुदा होता है। मार्ग जानने वाले की कुशलता का भी यही मतलब होता है कि जिसे जिसके योग्य समझे उसे वही बताए; न कि सब धान पूरे बाईस पसेरी ही तौलने लगे। तब तो अनर्थ ही होगा। किसी के लिए उसकी योग्यता के अनुसार जो मार्ग सर्वोत्तम हो सकता है वही दूसरे के लिए बेकार या हानिकारक भी हो सकता है। इसीलिए चतुर उपदेशक और जानकार की जरूरत होती है। अर्जुन के पूछने का यही आशय है। कृष्ण ने उत्तर भी इसी दृष्टि से दिया है। जनसाधारण के लिए तो साकारोपासना ही श्रेष्ठ है। कारण, निराकार की बात उनकी पहुँच के बाहर ही ठहरी। जंगल में फल पके भी तो गाँववालों के किस काम के?

कृष्ण के उत्तर का यही आशय है कि जनसाधारण को वहीं से शुरू करना होगा। उनके लिए वही श्रेष्ठ है, सर्वोपरि है। निराकार वाले तो बिरले ही होते हैं। उस दशा में तो लोग अपने आप पहुँच भी जाते हैं। इसलिए उस पर जोर देने की अपेक्षा इसी पर जोर देना उचित भी है। जनसाधारण की, आम लोगों की ही बात जो ठहरी। इसीलिए यदि ज्ञान-मार्ग से इसे उत्तम कहा है तो उसका ऊपर लिखा आशय समझ लेने से भ्रम न होगा। इसी बात को अर्थवाद की रीति, प्ररोचना या प्रशंसा भी कहते हैं। क्योंकि ऐसा करने से ही जनसाधारण इस तरफ झुकेंगे।

यही आशय मन में रख के -

अर्जुन उवाच

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा:॥ 1 ॥

अर्जुन ने पूछा (कि) इस तरह निरंतर भगवान में लगे हुए जो लोग तुम्हारी - भगवान की - साकार - उपासना करते हैं। और - जो अविनाशी, निराकार या अक्षरब्रह्म में लगे रहते हैं, इन उपाय जानने और करने वालों में सबसे चतुर कौन हैं? ।1।

श्रीभगवानुवाच

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:॥ 2 ॥

श्रीभगवान ने उत्तर दिया (कि) मुझ (साकार भगवान) में मन को जुटा के निरंतर उसी में पूर्ण श्रद्धा के साथ लगे हुए जो लोग उपासना करते हैं, मेरे जानते वही अत्यंत कुशल जानकार हैं। 2।

ये त्वक्षरमनिर्देश्य: मव्यक्तं पर्युपासते।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रु वम्॥ 3 ॥

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहितेरता:॥ 4 ॥

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्त चेतसाम्।

अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवदिभरवाप्यते॥ 5 ॥

विपरीत इनके जो सर्वत्र समदर्शी लोग सभी इंद्रियों को काबू में करके अक्षर, न बताए जा सकने वाले, अदृश्य सर्वव्यापी, चिंतन के अयोग्य, निर्विकार एकरस, क्रियाशून्य और स्थिर (ब्रह्म) की पूर्ण उपासना या समाधि करते हैं, समस्त संसार के हित में लगे हुए वे लोग (भी) मुझ भगवान को ही प्राप्त करते हैं (सही)। (मगर) निराकार में जिनके चित्त चिपक चुके हैं। ऐसे लोगों को (पहले) दिक्कतें बहुत ज्यादा (होती हैं)। क्योंकि शरीरधारियों के लिए अव्यक्त में जा लगना असंभव-सा ही होता है। 3। 4। 5।

यहाँ एकाध बातें विचारणीय हैं। इन श्लोकों में उन्हीं समदर्शियों का वर्णन है जिनका 'विद्याविनयसंपन्ने' (5। 18-21) में पाया जाता है। इसीलिए उनके बारे में, 'उपासते' के पहले 'परि' लगा के पूर्ण उपासना या समाधि के ही रूप में उनकी स्थिति का वर्णन किया है। पाँचवें श्लोक में 'अव्यक्तासक्तचेतसाम्' में जो 'आसक्त' पद आया है उससे भी यही सिद्ध हो जाता है कि वे समाधि की पूर्णावस्था वाले ही हैं। ऐसी दशा में जो अंत में कहा है कि अव्यक्त में लगन का होना शरीरधारियों के लिए असंभव-सा ही है उसका यह मतलब हर्गिज नहीं है कि ऐसे लोगों को कोई कष्ट होता है। वे तो पहुँचे हुए हईं। उन्हें क्या दिक्कत होगी? वे तो दिक्कतें पार कर गए हैं। शायद 'दु:खं' पद को देख के लोग ऐसा आशय निकालना चाहते हैं। वे इसमें इससे पहले के 'क्लेशोऽधिकतर:' से भी सहायता लेते हैं। मगर यह क्लेश तो उस दशा में पहुँचने से पहले का ही है। वहाँ पहुँच के कैसा क्लेश? कहने का आशय यही है कि बहुत ही ज्यादा दिक्कत से बिरला कोई उस दशा में पहुँच पाता है। इसीलिए वह असंभव या अप्राप्यसी ही वस्तु है। 'दु:खं' विशेषण जब क्रिया में लगता है तो उसका कष्ट अर्थ नहीं होता, किंतु सब मिला के 'प्राय: असंभव' यही अर्थ हो जाता है। यह बहुत ही मार्के की बात है। किंतु इधर ध्यान न देके लोग ऊल-जलूल अर्थ कर बैठते हैं। हाँ, इस अर्थ से यह सिद्ध होता है जरूर कि वह मार्ग बहुत ही कष्टसाध्यब है। कृष्ण का यही आशय है। ऊँचे दर्जे की बात ठहरी और वह जनसाधारण के लिए असंभव-सी हो तो ठीक ही है।

दूसरी बात 'सर्वभूतहितेरता:' की है। इसके पहले भी एक बार (5।25 में) आत्मज्ञानियों के ही संबंध में यह शब्द आया है। इसका अर्थ है 'सभी पदार्थों के हित में लगे हुए'। 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' (5। 7) भी उन्हीं को कहा गया है, जिसका अर्थ है कि सभी पदार्थों की आत्मा ही उनकी आत्मा बन गई है। इन दोनों के मिला देने पर इसका आशय यही हो जाता है कि सर्वत्र वे अपनी ही आत्मा देखते हैं। इसीलिए सभी के हितसाधन, भलाई या कल्याण ही में संलग्न रहते हैं। नीति का इससे उत्तम और व्यापक सिद्धांत होई नहीं सकता। इस पर अधिक विवाद करने की गुंजाइश यहाँ नहीं है। इसीलिए इसका विशद विवेचन आगे के लिए छोड़ देते हैं। मगर इतना तो कहना ही पड़ता है कि जो लोग 'अधिकांश लोगों के अधिक से अधिक हित' (The greatest good of the greatest number) वाला सिद्धांत ही कर्त्तव्याकर्तव्य का निर्णायक तथा पथदर्शक मानते हैं उनसे गीता सहमत नहीं है। यह तो सभी पदार्थों के हित को ही अपना पथदर्शक मानती है। केवल स्वार्थ, दूरदर्शी स्वार्थ और उच्च स्वार्थ की गोलमाल बातों की तो यहाँ पूछ भी नहीं है। गीता तो मनुष्यों के हित से भी आगे जा के सभी प्राणियों तक पहुँचती है और उन्हें भी अपना के आगे बढ़ने पर सभी पदार्थों के हित को ही देखती है। क्योंकि करने वाले की आत्मा तो कहीं सीमित न हो के अपरिमित है। फलत: सभी पदार्थों को अपने गोद में रख लेती है।

गीता के इस महान मंतव्य के निकट केवल मार्क्स का ही सिद्धांत पहुँच पाता है। क्योंकि मार्क्स तो समूचे समाज का ही आमूल परिवर्तन करके उसका पुनर्निर्माण चाहता है जिससे किसी एक को भी किसी प्रकार की असुविधा जरा भी न रह जाए। प्रकृति, रोगव्याधि तथा मृत्यु आदि पर भी विजय प्राप्त की जा सके। सभी तरह की बीमारियों, प्राकृतिक उपद्रवों, युद्धों और संघर्षों पर मानव-समाज का ऐसा आधिपत्य हो जाए कि ये जड़मूल से मिट जाएँ और अखंड शांति सर्वत्र विराजने लगे। यदि मानव-समाज को आराम दे सकें भी तो प्राकृतिक उपद्रवों, रोगों और युद्धों से मनुष्यों, पशु-पक्षियों और जमीन, पहाड़, घर-बार वगैरह का संहार होता ही रहेगा। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि सभी भूतों का हित हो गया? सभी भूतों के हितों का साधन किया जा रहा है? इन उपद्रवों को निर्मूल करने में जब तक सफलता न मिले तब तक यह बात कही जा सकती नहीं। इसलिए उस सफलता के लिए जो लोग दत्तचित्त हैं और समाज को नए साँचे में ढालना चाहते हैं सचमुच वही 'सर्वभूतहितेरता:' कहे जा सकते हैं। या नहीं, तो ऐसों के निकटवर्ती तो वे अवश्य ही माने जा सकते हैं। उनमें तथा सर्वभूतहितेरतों में बहुत ही कम अंतर रह जाएगा।

ऐ तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा:।

अनन्येनैव योगेन मां ध्या यंत उपासते॥ 6 ॥

तेषामहं समुद्ध र्त्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥ 7 ॥

हे पार्थ, (इनके विपरीत) जो लोग सभी कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ (साकार भगवान) को ही सबसे बढ़ के मानते हुए तथा अनन्यभाव से मेरा ध्या न करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मुझी में अपने चित्त को चिपका देने वाले ऐसे लोगों का (इस जन्म) मरण रूपी संसार-सागर से जल्द ही उद्धार कर देता हूँ। 6। 7।

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय:॥ 8 ॥

(इसलिए) मुझी में मन जोड़ दे (और) बुद्धि को भी मुझी में लगा दे। (परिणाम यह होगा कि) इसके - मरने के - बाद या इतना कर लेने पर बेशक तू मुझमें ही निवास करेगा - मेरा ही स्वरूप हो जाएगा। 8।

अथ चि त्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय॥ 9 ॥

लेकिन यदि, हे धनंजय, मुझमें चित्त को निश्चल रूप से लगा नहीं सकता, तो (इस बात के) अभ्यासरूपी उपाय से ही मुझे (क्रमश:) प्राप्त करने का संकल्प कर ले। 9।

यहाँ 'आप्तुं इच्छ' - 'पाने की इच्छा कर ले' का ही अभिप्राय हमने 'संकल्प कर ले' लिखा है और यही उचित भी है। इच्छा मात्र से तो कुछ होता जाता नहीं, जब तक संकल्प न कर लें।

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि॥ 10 ॥

(और अगर) अभ्यास भी न कर सके तो मदर्थ कर्म करने में ही लग जा। (क्योंकि) मदर्थ कर्मों को करते हुए भी (धीरे-धीरे) इष्टसिद्धि प्राप्त कर ही लेगा। 10।

अथैतदप्यशक्तोऽसि क र्त्तुं मद्योगमाश्रित:।

सर्वकर्मफलत्यागं तत: कुरु यतात्मवान्॥ 11 ॥

लेकिन यदि मुझे ही अर्पण करते हुए यह करने में भी असमर्थ हो तो मन पर अंकुश रखके सभी कर्मों के फलों की परवाह छोड़ दे। 11।


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